पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि-
(क) बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
(ख) वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इंसान थे।
बिस्मिल्ला खाँ अपने मजहब के प्रति समर्पित थे। वे अपने धर्म और उत्सवों के प्रति गंभीरता से आस्था रखते थे। बिस्मिल्ला खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के बावजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना करते रहे| मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्ला खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दूरी तक भीगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आंखों को भिगो देते। मुहर्रम-ताजिया में श्रद्धा से शिरकत करते थे। बिस्मिल्ला खाँ जी काशी में विश्वनाथ और बालाजी के प्रति भी अपार श्रद्धा रखते हुए वहाँ शहनाई बजाते थे। काशी से बाहर होने पर थोड़ी देर काशी के मंदिरों की ओर मुँह करके शहनाई बजाकर सफलता की कामना करते थे। इस तरह बिस्मिल्ला खाँ जी मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
(ख) बिस्मिल्ला खाँ जी एक सच्चे इंसान थे। बिस्मिल्ला खाँ जी काशी में रहते हुए भी काशी की उन सभी परंपराओं का निर्वाह करते थे जो वहाँ प्रचलित थीं, चाहे वे किसी भी संप्रदाय की रही हों। वे सभी परंपराएँ उनके जीवन का अंग बन चुकी थीं। वे धर्मों से अधिक मानवता को महत्व देते थे। हिन्दू तथा मुस्लिम वे दोनों का ही सम्मान करते थे। वे जिस प्रकार श्रद्धा और आस्था से मुहर्रम और ताजिया के समय मातम वाली शहनाई की धुन बजाते थे, उसी श्रद्धा से बालाजी, विश्वनाथ के मंदिरों में शहनाई बजाया करते थे। वे बनावटीपन पर विश्वास नहीं रखते थे। बिस्मिल्ला खाँ भारतरत्न जैसा सर्वोच्च सम्मान पाकर भी साधारण जीवन व्यतीत करते थे। भारतरत्न से सम्मानित होने पर भी उन्हें घमंड नहीं था। वे सामान्य और सरल जीवन जीने वाले, सबका सम्मान करने वाले, सच्चे अर्थों में इंसान थे।